उपन्यास >> सैलाबी तटबन्ध सैलाबी तटबन्धअजित गुप्ता
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उपन्यास की कथा किस्सागोई शैली में है। शायद यही वजह है कि पठनीयता कहीं भी बाधित नहीं होती। रोमांस, सेक्स, प्रकृति और मातृत्व के इर्द-गिर्द बुनी इसकी कथा भविष्य की एक फैंटेसी के द्वारा हमारे मौजूदा जीवन-यथार्थ के कई कोने-अँतरे खोलती है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
यह उपन्यास ढाई सदी बाद की जीवन-स्थितियों का काल्पनिक संसार रचता है;
लेकिन नित्य परिवर्तित होती मौजूदा सामाजिक संरचना के परिप्रेक्ष्य में
सन् 2151 का समय यथार्थ के बिलकुल पास-पास की ध्वनि देता है।
स्त्री-विमर्श के दौरे में अपने ढंग से अलग और इस अनूठे उपन्यास के केन्द्र में है सन् 2151 का समय और तब का यौन- जीवन। यहाँ परिवार नहीं है, पति पत्नी नहीं है और न ही घरों में बच्चे। हैं भी तो स्कूल में। धर्म पूर्णत: प्रतिबन्धित है। लेकिन प्रकृति है और वह पात्रों के जीवन में अपनी स्वाभाविक भूमिका निभाती है। मर्यादा और उच्छृंखलता का भेद इतना साफ नहीं है कि आतंकित करे। भोग और मनोरंजन ही जीवन के लक्ष्य हैं। लेकिन शरीर की तृष्णा कभी समाप्त नहीं होती। अन्तत: ‘मातृत्व-सुख’ जवाब बनकर सामने खड़ा हो जाता है।
उपन्यास की कथा किस्सागोई शैली में आगे बढ़ती है। शायद यही वजह है कि पठनीयता कहीं भी बाधित नहीं होती। रोमांस, सेक्स, प्रकृति और मातृत्व के इर्द-गिर्द बुनी इसकी कथा भविष्य की एक फैंटेसी के द्वारा हमारे मौजूदा जीवन-यथार्थ के कई कोने-अँतरे खोलती है।
स्त्री-विमर्श के दौरे में अपने ढंग से अलग और इस अनूठे उपन्यास के केन्द्र में है सन् 2151 का समय और तब का यौन- जीवन। यहाँ परिवार नहीं है, पति पत्नी नहीं है और न ही घरों में बच्चे। हैं भी तो स्कूल में। धर्म पूर्णत: प्रतिबन्धित है। लेकिन प्रकृति है और वह पात्रों के जीवन में अपनी स्वाभाविक भूमिका निभाती है। मर्यादा और उच्छृंखलता का भेद इतना साफ नहीं है कि आतंकित करे। भोग और मनोरंजन ही जीवन के लक्ष्य हैं। लेकिन शरीर की तृष्णा कभी समाप्त नहीं होती। अन्तत: ‘मातृत्व-सुख’ जवाब बनकर सामने खड़ा हो जाता है।
उपन्यास की कथा किस्सागोई शैली में आगे बढ़ती है। शायद यही वजह है कि पठनीयता कहीं भी बाधित नहीं होती। रोमांस, सेक्स, प्रकृति और मातृत्व के इर्द-गिर्द बुनी इसकी कथा भविष्य की एक फैंटेसी के द्वारा हमारे मौजूदा जीवन-यथार्थ के कई कोने-अँतरे खोलती है।
अपनी बात
मेरे कदम तेजी से बढ़ रहे हैं, मैं भविष्य की ओर बढ़ना चाहती हूँ, देखना
चाहती हूँ अपना भविष्य और उसे साक्षात अनुभूत भी करना चाहती हूँ। विश्राम
के लिए मेरे कदम रुकते हैं और मैं अपने आपको पुन: वर्तमान में ही खड़ा
पाती हूँ। समय कहता है कि तुम सदैव वर्तमान में ही रहोगे। कितना भी भागने
की कोशिश करो, तुम्हारे जीवन का हर जीवन्त पल वर्तमान ही होगा। लेकिन लेखक
का मन कब मानता है ? वह कब समय ही सुनता है ? मन ने कहा कि यह सत्य है कि मैं सदैव वर्तमान में ही जीऊँगा लेकिन मेरी लेखनी तो भविष्य के सपने देख
सकती है ! लेखनी की स्याही इतराकर बोली कि मैं तुम्हें ले जाऊँगी, भविष्य
के उस पार। तुम सोचो और मुझसे अपनी इच्छा व्यक्त करो। मन ने कहा कि मैं
काल को देखना चाहती हूँ जो आज से 150 वर्ष बाद आएगा। लेखनी तैयार हो गई।
मन अपनी कल्पना को घोड़े पर सवार हो गया। लेखनी की स्याही बहने लगी।
स्याही के कण-कण से सजे शब्द, कागज के सीने पर भविष्य के हस्ताक्षर करने
लगे। मन सन् 2151 में जा पहुँचा जहाँ सोमेला अकेली खड़ी है।
परिवार नहीं है, पति-पत्नी नहीं है और नहीं हैं घरों में बच्चे। बच्चे हैं लेकिन से स्कूल में पल रहे हैं, वहीं बड़े हो रहे हैं। माता-पिता का नाम नहीं है। सारा जीवन यंत्रवत् संचालित है। भोग और मनोरंजन जीवन के लक्ष्य है। भोग के लिए प्रतिदिन नए उपाय खोजे जाते हैं। सभी पाते जा रहे हैं, पाते जा रहे हैं, लेकिन शरीर की तृष्णा समाप्त हो रही है कि इस विकराल तृष्णा का अन्त कैसे सम्भव है ? सोमेला उत्तर बन जाती है, स्त्री की तृष्णा का अन्त पुरुष को पूर्ण रूप से अपने अन्दर समा लेने से सम्भव है। जब तक एक नन्हा पुरुष तुम्हारे अन्दर प्रवेश करेगा तब तुम्हारी तृष्णा ममता में बदल जाएगी। पोली सारे प्रयास करके थक गई है, जंगलों में जिंगल के साथ भटकी है, फिर भी शरीर की पिपासा शान्त नहीं हो रही ! घड़ा भरकर मद पीने से पिपासा बढ़ने लगी है, शान्त होने का नाम नहीं लेती। लेकिन जैसी ही रोमित ने इस दावानल, वर्ष के जल से ही शान्त हुआ।
अस्सी वर्षीय कृष्णकुमार से सोमेला प्रश्न करती है कि उनके जीवन का लक्ष्य क्या है ? कृष्णकुमार लक्ष्य पाने के लिए मचल उठते हैं। सन्तान को खोजना ही उनका लक्ष्य बन जाता है। उनका अतीत हुबहू उनकी शक्ल में उनके सामने खड़ा है, वर्तमान बनकर। वर्तमान को भी लक्ष्य मिलता है, वह भी अपना भविष्य जानने के लिए बैचेन होता है। एक नन्हा रोमित मेरे आँगन में हो, मन और मस्तिष्क दोनों शरीर में हड़कम्प मचा देते हैं। प्रयत्न जारी होने लगते हैं। जिन घर के आँगनों से नन्ही किलकारी छन गई थीं, वहाँ फिर से पदचाप सुनाई देने लगती है। जो जिंगल केवल जंगल की भाषा जानता है, उसके अन्दर अबोध शिशु को सेरेना बाहर निकाल लाती है। जंगल और प्रकृति का मन कैसा होता है, लोरेल सेरेना बाहर निकाल लाती है। जंगल और प्रकृति का मन कैसा होता है, लोरेल निर्मला को बताना चाह रहा है। एक तरफ जिंगल कह रहा है कि हमारे अन्दर एक जानवर है, उसे हम जितना बाहर निकालते हैं, उतना ही हम जीवन का मजा लूट सकते हैं। लेकिन सेरेना कहती है कि नहीं हमारे अन्दर एक अबोध शिशु छिपा है। सन् 2151 में मन का संघर्ष है। हम भोग के लिए जानवरों को प्रतीक मान बैठे हैं और अक्सर कहते हैं कि कैसे जानवरों की तरह मेरा उपभोग कर रहे हो ? लेकिन क्या यह सत्य है ? जंगल में अपनी तृप्ति ढूँढ़ता है। जानवरों की भाषा में, उनके चित्कार में, यौवन को पाना चाहता है। पोली उसका साथ देती है, लेकिन एक दावानल के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता। वह भोग की चरम सीमा पाना चाहता है लेकिन क्या वह प्राप्त कर पाता है ? दूसरी तरफ लोरेल है, जो जंगल और जानवरों की भाषा जानता है। वह प्रकृति और जंगलीपन का अन्तर जानता है और निर्मला को इसी सत्य का साक्षात्कार कराता है।
लेखनी चलने लगती है, कभी पिपासा की पराकाष्ठा लिखती है और कभी उसे शान्त करने का प्रयास करती है। सोमेला भी बच्चे को जन्म देना चाहती है। उसे अपना स्तनपान कराना चाहती है और उसे अँगुली पकड़कर चलना सिखाना चाहती हैं। लेकिन क्या यह सम्भव होगा ? यांत्रिक जीवन में क्या कभी जीवन्तता आएगी ? क्या स्त्री कभी माँ बनेगी ? ढेर सारे प्रश्नों में उलझ मेरी लेखनी, बस लिखती ही रही है, लिखती ही रही है। कहीं समाधान है तो कहीं प्रश्नों के क्षितिज। मेरी कल्पनाल को आपकी दृष्टि कितना बाँध पाएगी, यह भी भविष्य के गर्भ में छिपा है। मैं तो केवल प्रयास कर रही हूँ, एक ताना-बाना आपके समक्ष बना रही हूँ, उससे कोई नवीन परिधान साहित्य को मिल सकेंगे या नहीं, यह मैं आपके लिए छोड़ती हूँ। मन के सैलाब का तट कितना बँध सकेगा और कितना टूट जाएगा, या फिर तट बँधे ही क्यूँ, प्रश्न अधर में है।
परिवार नहीं है, पति-पत्नी नहीं है और नहीं हैं घरों में बच्चे। बच्चे हैं लेकिन से स्कूल में पल रहे हैं, वहीं बड़े हो रहे हैं। माता-पिता का नाम नहीं है। सारा जीवन यंत्रवत् संचालित है। भोग और मनोरंजन जीवन के लक्ष्य है। भोग के लिए प्रतिदिन नए उपाय खोजे जाते हैं। सभी पाते जा रहे हैं, पाते जा रहे हैं, लेकिन शरीर की तृष्णा समाप्त हो रही है कि इस विकराल तृष्णा का अन्त कैसे सम्भव है ? सोमेला उत्तर बन जाती है, स्त्री की तृष्णा का अन्त पुरुष को पूर्ण रूप से अपने अन्दर समा लेने से सम्भव है। जब तक एक नन्हा पुरुष तुम्हारे अन्दर प्रवेश करेगा तब तुम्हारी तृष्णा ममता में बदल जाएगी। पोली सारे प्रयास करके थक गई है, जंगलों में जिंगल के साथ भटकी है, फिर भी शरीर की पिपासा शान्त नहीं हो रही ! घड़ा भरकर मद पीने से पिपासा बढ़ने लगी है, शान्त होने का नाम नहीं लेती। लेकिन जैसी ही रोमित ने इस दावानल, वर्ष के जल से ही शान्त हुआ।
अस्सी वर्षीय कृष्णकुमार से सोमेला प्रश्न करती है कि उनके जीवन का लक्ष्य क्या है ? कृष्णकुमार लक्ष्य पाने के लिए मचल उठते हैं। सन्तान को खोजना ही उनका लक्ष्य बन जाता है। उनका अतीत हुबहू उनकी शक्ल में उनके सामने खड़ा है, वर्तमान बनकर। वर्तमान को भी लक्ष्य मिलता है, वह भी अपना भविष्य जानने के लिए बैचेन होता है। एक नन्हा रोमित मेरे आँगन में हो, मन और मस्तिष्क दोनों शरीर में हड़कम्प मचा देते हैं। प्रयत्न जारी होने लगते हैं। जिन घर के आँगनों से नन्ही किलकारी छन गई थीं, वहाँ फिर से पदचाप सुनाई देने लगती है। जो जिंगल केवल जंगल की भाषा जानता है, उसके अन्दर अबोध शिशु को सेरेना बाहर निकाल लाती है। जंगल और प्रकृति का मन कैसा होता है, लोरेल सेरेना बाहर निकाल लाती है। जंगल और प्रकृति का मन कैसा होता है, लोरेल निर्मला को बताना चाह रहा है। एक तरफ जिंगल कह रहा है कि हमारे अन्दर एक जानवर है, उसे हम जितना बाहर निकालते हैं, उतना ही हम जीवन का मजा लूट सकते हैं। लेकिन सेरेना कहती है कि नहीं हमारे अन्दर एक अबोध शिशु छिपा है। सन् 2151 में मन का संघर्ष है। हम भोग के लिए जानवरों को प्रतीक मान बैठे हैं और अक्सर कहते हैं कि कैसे जानवरों की तरह मेरा उपभोग कर रहे हो ? लेकिन क्या यह सत्य है ? जंगल में अपनी तृप्ति ढूँढ़ता है। जानवरों की भाषा में, उनके चित्कार में, यौवन को पाना चाहता है। पोली उसका साथ देती है, लेकिन एक दावानल के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता। वह भोग की चरम सीमा पाना चाहता है लेकिन क्या वह प्राप्त कर पाता है ? दूसरी तरफ लोरेल है, जो जंगल और जानवरों की भाषा जानता है। वह प्रकृति और जंगलीपन का अन्तर जानता है और निर्मला को इसी सत्य का साक्षात्कार कराता है।
लेखनी चलने लगती है, कभी पिपासा की पराकाष्ठा लिखती है और कभी उसे शान्त करने का प्रयास करती है। सोमेला भी बच्चे को जन्म देना चाहती है। उसे अपना स्तनपान कराना चाहती है और उसे अँगुली पकड़कर चलना सिखाना चाहती हैं। लेकिन क्या यह सम्भव होगा ? यांत्रिक जीवन में क्या कभी जीवन्तता आएगी ? क्या स्त्री कभी माँ बनेगी ? ढेर सारे प्रश्नों में उलझ मेरी लेखनी, बस लिखती ही रही है, लिखती ही रही है। कहीं समाधान है तो कहीं प्रश्नों के क्षितिज। मेरी कल्पनाल को आपकी दृष्टि कितना बाँध पाएगी, यह भी भविष्य के गर्भ में छिपा है। मैं तो केवल प्रयास कर रही हूँ, एक ताना-बाना आपके समक्ष बना रही हूँ, उससे कोई नवीन परिधान साहित्य को मिल सकेंगे या नहीं, यह मैं आपके लिए छोड़ती हूँ। मन के सैलाब का तट कितना बँध सकेगा और कितना टूट जाएगा, या फिर तट बँधे ही क्यूँ, प्रश्न अधर में है।
अजित गुप्ता
सैलाबी तटबन्ध
सन् 2151 चल रहा है। 25 वर्षीय सोमेला अपने घर में अकेली बैठी है। एक शयन
कक्ष वाले घर में एक लिविंग रूप है, जिसके साथ लगा हुआ किचन है। किचन में
एक माइक्रोवेव ऑवन और एक बड़ा-सा फ्रिज रखा है। कुछ क्रॉकरी भी है, बस।
सोमेला को कुछ खाने की इच्छा होती है, वह उठकर फ्रिज तक जाती है और उसमें
से खाना निकालती है, फिर ऑवन में गर्म करके खा लेती है। आज उसकी छुट्टी
है, तो वह समझ नहीं पा रही है कि क्या किया जाए ? करने को कुछ है भी नहीं,
घर की सफाई के नाम पर वेक्यूम-क्लीनर चलाना होता है, वह भी पन्द्रह दिनों
में। शॉपिंग भी सप्ताह में एक बार करती थी, सात दिनों के लिए एक साथ ही
खाना व अन्य सामान मॉल से ले आती थी। खाने में ब्रेड़, रोटी, सब्जी बनी
हुई मिल जाती थी, जिसे वह लाकर फ्रिज में रख देती थी और जब भी खाने का मन
होता था, ऑवन में डालकर गर्म कर लेती थी। उसने फिर मोबाइल उठाया और
दोस्तों से ही बात करने का मन बनाया। लेकिन आज उसे कोई भी उपलब्ध नहीं हो
रहा था। वह सोचने लगी कि आज की शाम कहाँ जाया जाए ?
आज मौसम भी बरसात का है, रुक-रुककर तेज बारिश हो रही है। वैसे भी मुम्बई में जब बारिश शुरु हो जाती है तब पूरे महीने रुकने का नाम नहीं लेती। मुम्बई भारत का ऐसा शहर था जिसे ‘ग्लेमरस सिटी ऑफ इंडिया’ कहा जाता था। यहाँ की सड़के काँच की तरह चमकती थीं और बरसात आने पर सड़क से पानी ऐसे रपटता था जैसे पारा छिटक कर दूर चला जाता है। कहीं कोई गड्ढ़े नहीं, ना कोई नालियों की रुकावट, ना गन्दगी का ढेर। सड़क के दोनों ओर हरी दूब, बरसात में इतनी हरी हो जाती थी कि देखते ही बनता था। बरसात में गाड़ी लेकर जाने का आनन्द ही कुछ और था। लेकिन गाड़ियाँ अधिकतर सोलर ऊर्जा से चलती थीं और बरसात के दिनों में मुम्बई में कई दिनों तक सूर्य के दर्शन नहीं होते थे अत: सोमेला को सोच-समझ कर गाड़ी का प्रयोग करना होता था।
उनका फ्लैट एक बड़ी-सी सोसायटी में था, जो समुद्र किनारे से कुछ दूरी पर ही था। मुम्बई जैसे महानगर में रहकर सोमेला की जिन्दगी गतिशील थी। उस समय मुम्बई की जनसंख्या 50 लाख के आसपास थी। समुद्र किनारे शाम के समय भीड़-भाड़ वाले क्षेत्र बन जाते थे, इसलिए वह वहाँ भी नहीं जाना चाहती थी। मुम्बई निवासी अक्सर समुद्र किनारे या फिर मॉल में जाकर अपना समय व्यतीत करते थे। मुम्बई का सारा बाजार इन बड़ी मॉलों में सिमट गया था। जहाँ रोजमर्रा की प्रत्येक वस्तु उपलब्ध हो जाती थी। सोने के जेवर से लेकर हरी सब्जियाँ तक वहाँ एक ही स्थान पर मिल जाती थी। लकिन सोमेला को आज कुछ भी नहीं खरीदना था अत: वहाँ भी नहीं जाना चाहती थी।
फिर अचानक वह उठी और घर के बाहर आ गई। सोयायटी में ही बनी लायब्रेरी की ओर उसके कदम बढ़ गए। मुम्बई में जितना भी सोसायटीज़ बनी थीं सभी में पुस्तकालय, खेलकूद के इंडोर और आउटडोर गेम्स, स्वीमिंग पूल आदि सारी सुविधाएँ उपलब्ध रहती थीं। सोमेला की सोयायटी में भी ये सारी सुविधाएँ थीं। उसने अपना आईकार्ड मशीन पर स्क्रेच किया और पुस्तकालय के अन्दर प्रवेश लिया। उसकी सोसायटी की सबसे अच्छी बात यह थी कि वहाँ स्थित पुस्तकालय में सभी प्रकार की पुस्तकें थीं। नई प्रकाशित पुस्तकों के साथ प्राचीन पुस्तकें भी वहाँ थीं। आमतौर पर किसी को भी प्राचीन पुस्तकों से कोई लेना-देना नहीं होता था केवल नई व अंग्रेजी या हिन्दी की पुस्तकों को ही पढ़ते थे।
अभी वह अंग्रेजी-किताबों के संस्करण ढूँढ रही थी कि उसकी निगाह पास की हिन्दी पुस्तकों की अलमारी पर पड़ गई। उसे हिन्दी अच्छी प्रकार से आती थी, तो उसने आज हिन्दी का उपन्यास ही पढ़ने की ठान ली। हिन्दी सम्पूर्ण विश्व में बोली जानेवाली भाषा बन चुकी थी अत: हिन्दी की पुस्तकें बाजार में बहुतायत से उपलब्ध होती थीं। बस अन्तर इतना था कि पुरातन काल में जहाँ परिवार और समाज के रिश्तों और भावनाओं पर लिखा जाता था अब उनका स्थान कपोल-कल्पना, मनोरंजन-प्रधान एवं यौन-संबंधों पर आधारित पुस्तकों ने ले लिया था। सोमेला इन सारी पुस्तकों को पढ़कर बोर हो चुकी थी।
वह एक छोटे बच्चे के स्कूल में अध्यापिका थी अत: उसे वहाँ छोटी-छोटी कहानियों की पुस्तकें पढ़ने को मिल जाती थी। उसका मन होने लगा कि आज इतिहास को पढ़ा जाए लेकिन फिर उसने अपनी रुचि को टटोलना शुरू किया तो पाया कि उसे इतिहास में कोई दिलचस्पी नहीं हैं। आखिर बीसवीं शताबदी के अमर उपन्यास का नाम अलमारी पर जाकर उसकी तलाश ने उसे रुकने का संकेत किया। उसे लगा कि यदि मैं बीसवीं शताब्दीं का उपन्यास पढ़ूँगी तो मुझे उस काल का इतिहास और अन्य जानकारियाँ भी मिल जाएँगी, तो उसने अलमारी से पुस्तकें छाँटना शुरू किया। उनकी नजर शरतचन्द्र, रवीन्द्र, विमलमित्र, प्रेमचन्द आदि पर पड़ी, उसे ये नाम कुछ सुने-सुने से लगे। फिर उसकी निगाह एक लेखिका पर पड़ी और वह नाम था- आशापूर्णा देवी। उसने सोचा कि चलो एक महिला उपन्यासकार को ही पढ़ लिया जाए। उसने ‘प्रथम प्रतिश्रुति’ उपन्यास छाँटा और वापस घर आ गई।
उपन्यास को पढ़ना शुरू किया और कुछ शब्द उसकी समझ से बाहर होते चले गए। परिवार, विवाह, माँ, दादा-दादी आदि-आदि। अब उसे डिक्शनरी की आवश्यकता थी। लेकिन समस्या यह थी कि हिन्दी की डिक्शनरी उसके पास थी नहीं। फिर उसने कम्प्यूटर खोला और हिन्दी की साइट पर जाकर इन शब्दों के अर्थ मिलने शुरू हो गए थे। उसका जन्म कहाँ हुआ ? यह उसे मालूम नहीं था, बस वह इतना जानती थी कि किस स्कूल में उसका जीवन कटा है। उसी का क्यों, सभी बच्चों का जीवन ऐसा ही तो था।
भारत के महानगर ही नहीं, सभी कस्बे, गाँव में यहीं प्रथा प्रारम्भ हो चली थी। एक स्त्री बच्चे को जन्म देती थी और जगह और उपलब्धता के हिसाब से सरकार द्वारा आवासीय स्कूल बच्चे को मिल जाता था। किसने जन्म दिया, इसका कोई रिकॉर्ड भी नहीं होता था। बच्चे का नाम भी स्कूल वाले ही देते थे। सरकार द्वारा प्रदत्त सारी सुख-सुविधा होती थी स्कूल में। पढ़ाई-लिखाई सभी कुछ स्कूल के माध्यम से ही होती थी। स्कूल पूरी तरह सरकार के अधीन थे। बच्चे की रुचि के अनुसार उन्हें पढ़ने का अवसर मिलता था। बच्चा बड़ा होकर आर्थिक रूप से सशक्त हो जाए, बस इसी बात पर सारी ध्यान केन्द्रित रहता था। प्रारम्भ में सभी कामों के लिए एक-सा पैसा मिलता था तो कोई भी शिक्षा और कोई भी काम छोटा-बड़ा नहीं होता था। एक-एक बच्चा देश की अमूल्य निधि के रूप में पाला जाता था। क्योंकि विवाह पद्धति समाप्त हो गई थी और कोई भी महिला बच्चा पैदा करना नहीं चाहती थी। कभी-कभी बच्चा उसके जीवन में आ जाता था तो अस्पताल जाकर प्रसव करा लेती थी और बच्चा सरकार की अमानत हो जाता था। उसे स्वयं भी नहीं मालूम था कि उसकी माँ कौन हैं और पिता कौन ? फिर दादा-दादी और नाना-नानी का तो प्रश्न ही नहीं उठता था।
आज मौसम भी बरसात का है, रुक-रुककर तेज बारिश हो रही है। वैसे भी मुम्बई में जब बारिश शुरु हो जाती है तब पूरे महीने रुकने का नाम नहीं लेती। मुम्बई भारत का ऐसा शहर था जिसे ‘ग्लेमरस सिटी ऑफ इंडिया’ कहा जाता था। यहाँ की सड़के काँच की तरह चमकती थीं और बरसात आने पर सड़क से पानी ऐसे रपटता था जैसे पारा छिटक कर दूर चला जाता है। कहीं कोई गड्ढ़े नहीं, ना कोई नालियों की रुकावट, ना गन्दगी का ढेर। सड़क के दोनों ओर हरी दूब, बरसात में इतनी हरी हो जाती थी कि देखते ही बनता था। बरसात में गाड़ी लेकर जाने का आनन्द ही कुछ और था। लेकिन गाड़ियाँ अधिकतर सोलर ऊर्जा से चलती थीं और बरसात के दिनों में मुम्बई में कई दिनों तक सूर्य के दर्शन नहीं होते थे अत: सोमेला को सोच-समझ कर गाड़ी का प्रयोग करना होता था।
उनका फ्लैट एक बड़ी-सी सोसायटी में था, जो समुद्र किनारे से कुछ दूरी पर ही था। मुम्बई जैसे महानगर में रहकर सोमेला की जिन्दगी गतिशील थी। उस समय मुम्बई की जनसंख्या 50 लाख के आसपास थी। समुद्र किनारे शाम के समय भीड़-भाड़ वाले क्षेत्र बन जाते थे, इसलिए वह वहाँ भी नहीं जाना चाहती थी। मुम्बई निवासी अक्सर समुद्र किनारे या फिर मॉल में जाकर अपना समय व्यतीत करते थे। मुम्बई का सारा बाजार इन बड़ी मॉलों में सिमट गया था। जहाँ रोजमर्रा की प्रत्येक वस्तु उपलब्ध हो जाती थी। सोने के जेवर से लेकर हरी सब्जियाँ तक वहाँ एक ही स्थान पर मिल जाती थी। लकिन सोमेला को आज कुछ भी नहीं खरीदना था अत: वहाँ भी नहीं जाना चाहती थी।
फिर अचानक वह उठी और घर के बाहर आ गई। सोयायटी में ही बनी लायब्रेरी की ओर उसके कदम बढ़ गए। मुम्बई में जितना भी सोसायटीज़ बनी थीं सभी में पुस्तकालय, खेलकूद के इंडोर और आउटडोर गेम्स, स्वीमिंग पूल आदि सारी सुविधाएँ उपलब्ध रहती थीं। सोमेला की सोयायटी में भी ये सारी सुविधाएँ थीं। उसने अपना आईकार्ड मशीन पर स्क्रेच किया और पुस्तकालय के अन्दर प्रवेश लिया। उसकी सोसायटी की सबसे अच्छी बात यह थी कि वहाँ स्थित पुस्तकालय में सभी प्रकार की पुस्तकें थीं। नई प्रकाशित पुस्तकों के साथ प्राचीन पुस्तकें भी वहाँ थीं। आमतौर पर किसी को भी प्राचीन पुस्तकों से कोई लेना-देना नहीं होता था केवल नई व अंग्रेजी या हिन्दी की पुस्तकों को ही पढ़ते थे।
अभी वह अंग्रेजी-किताबों के संस्करण ढूँढ रही थी कि उसकी निगाह पास की हिन्दी पुस्तकों की अलमारी पर पड़ गई। उसे हिन्दी अच्छी प्रकार से आती थी, तो उसने आज हिन्दी का उपन्यास ही पढ़ने की ठान ली। हिन्दी सम्पूर्ण विश्व में बोली जानेवाली भाषा बन चुकी थी अत: हिन्दी की पुस्तकें बाजार में बहुतायत से उपलब्ध होती थीं। बस अन्तर इतना था कि पुरातन काल में जहाँ परिवार और समाज के रिश्तों और भावनाओं पर लिखा जाता था अब उनका स्थान कपोल-कल्पना, मनोरंजन-प्रधान एवं यौन-संबंधों पर आधारित पुस्तकों ने ले लिया था। सोमेला इन सारी पुस्तकों को पढ़कर बोर हो चुकी थी।
वह एक छोटे बच्चे के स्कूल में अध्यापिका थी अत: उसे वहाँ छोटी-छोटी कहानियों की पुस्तकें पढ़ने को मिल जाती थी। उसका मन होने लगा कि आज इतिहास को पढ़ा जाए लेकिन फिर उसने अपनी रुचि को टटोलना शुरू किया तो पाया कि उसे इतिहास में कोई दिलचस्पी नहीं हैं। आखिर बीसवीं शताबदी के अमर उपन्यास का नाम अलमारी पर जाकर उसकी तलाश ने उसे रुकने का संकेत किया। उसे लगा कि यदि मैं बीसवीं शताब्दीं का उपन्यास पढ़ूँगी तो मुझे उस काल का इतिहास और अन्य जानकारियाँ भी मिल जाएँगी, तो उसने अलमारी से पुस्तकें छाँटना शुरू किया। उनकी नजर शरतचन्द्र, रवीन्द्र, विमलमित्र, प्रेमचन्द आदि पर पड़ी, उसे ये नाम कुछ सुने-सुने से लगे। फिर उसकी निगाह एक लेखिका पर पड़ी और वह नाम था- आशापूर्णा देवी। उसने सोचा कि चलो एक महिला उपन्यासकार को ही पढ़ लिया जाए। उसने ‘प्रथम प्रतिश्रुति’ उपन्यास छाँटा और वापस घर आ गई।
उपन्यास को पढ़ना शुरू किया और कुछ शब्द उसकी समझ से बाहर होते चले गए। परिवार, विवाह, माँ, दादा-दादी आदि-आदि। अब उसे डिक्शनरी की आवश्यकता थी। लेकिन समस्या यह थी कि हिन्दी की डिक्शनरी उसके पास थी नहीं। फिर उसने कम्प्यूटर खोला और हिन्दी की साइट पर जाकर इन शब्दों के अर्थ मिलने शुरू हो गए थे। उसका जन्म कहाँ हुआ ? यह उसे मालूम नहीं था, बस वह इतना जानती थी कि किस स्कूल में उसका जीवन कटा है। उसी का क्यों, सभी बच्चों का जीवन ऐसा ही तो था।
भारत के महानगर ही नहीं, सभी कस्बे, गाँव में यहीं प्रथा प्रारम्भ हो चली थी। एक स्त्री बच्चे को जन्म देती थी और जगह और उपलब्धता के हिसाब से सरकार द्वारा आवासीय स्कूल बच्चे को मिल जाता था। किसने जन्म दिया, इसका कोई रिकॉर्ड भी नहीं होता था। बच्चे का नाम भी स्कूल वाले ही देते थे। सरकार द्वारा प्रदत्त सारी सुख-सुविधा होती थी स्कूल में। पढ़ाई-लिखाई सभी कुछ स्कूल के माध्यम से ही होती थी। स्कूल पूरी तरह सरकार के अधीन थे। बच्चे की रुचि के अनुसार उन्हें पढ़ने का अवसर मिलता था। बच्चा बड़ा होकर आर्थिक रूप से सशक्त हो जाए, बस इसी बात पर सारी ध्यान केन्द्रित रहता था। प्रारम्भ में सभी कामों के लिए एक-सा पैसा मिलता था तो कोई भी शिक्षा और कोई भी काम छोटा-बड़ा नहीं होता था। एक-एक बच्चा देश की अमूल्य निधि के रूप में पाला जाता था। क्योंकि विवाह पद्धति समाप्त हो गई थी और कोई भी महिला बच्चा पैदा करना नहीं चाहती थी। कभी-कभी बच्चा उसके जीवन में आ जाता था तो अस्पताल जाकर प्रसव करा लेती थी और बच्चा सरकार की अमानत हो जाता था। उसे स्वयं भी नहीं मालूम था कि उसकी माँ कौन हैं और पिता कौन ? फिर दादा-दादी और नाना-नानी का तो प्रश्न ही नहीं उठता था।
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